Description
अपनी-अपनी दृष्टि और अपनी-अपनी अनुभूति। यूरोपीय चिन्तकों को यह जीवन संघर्षमय लगा। दर्शन शास्त्रियांे को यह जीवन दुःखमय लगा। लेकिन वैदिक ऋषियों को यह संसार और जीवन ‘मधुमय’ प्रतीत हुआ। वे अमर हो जाना चाहते थे। संसार की मधुमयता ने उन्हें दीर्घजीवी रहने की जिजिवीषा दी। तभी प्रार्थनाएं फूटीं, स्तुतियां उगीं – 100 बरस जीने की जिजिवीषा वैदिक साहित्य का मधुगान बनी। उन्हें मधुमय इस सृष्टि में सब तरह मधुवातायन ही दिखाई पड़ रहा था। वैदिक द्रष्टा ऋषियों के पास संसार को मधुमय बनाने और देखने वाली प्रज्ञा थी। उन्होंने इस प्रज्ञा का नाम रखा – मधु विद्या। मधुविद्या की प्राप्ति श्रेष्ठतम आनंद है। मधुविद्या मधुरिमा है, मधुमती तो खैर है ही………
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